श्रीकृष्ण पूर्णब्रह्म परमात्मा
✍ अनन्तश्री विभूषित जगद्गुरु आचार्य श्री कृष्णमणिजी महाराज ।
पूर्णब्रह्म परमात्मा विश्व ब्रह्माण्डके एकमात्र स्वामी हैं । वे सत् चिद् एवं आनन्द स्वरूप हैं । उनको श्री कृष्ण नामसे पुकारा गया है। श्री कृष्ण शब्दकी व्याख्या इस प्रकार की गई है,
कृषिर्भू वाचकः शब्दः, णश्च निवृत्ति वाचकः ।.
तयोरैक्यं कृष्णनाम, पूर्णं ब्रह्म सनातनम् ॥
कृष् शब्दका अर्थ होता है सत्ता । सत्ता चेतनाकी होती है। कृष् वह चेतन है जो सभी चेतनाओंके मूलमें है। ण का अर्थ होता है निवृत्ति अर्थात् आनन्द । जिसकी एकमात्र सत्ता है, जो सभी चेतनाओंके मूलमें हैं और आनन्द स्वरूप हैं ऐसे सनातन पूर्णब्रह्म परमात्मा श्री कृष्ण हैं।
परमात्मा एक हैं, अद्वितीय हैं (एकमेवाद्वितीयम्) । उनको शास्त्रों में पूर्णब्रह्म ( पूर्णंब्रह्म सनातनम्), पूर्णपुरुषोत्तम, उत्तम पुरुष (उत्तमः पुरुषस्त्वन्यः परमात्मेत्युदाहृतः), अक्षरातीत (अक्षरातीतोऽयं पुरुषः), परम सत्य ( एकं सत्) आदि अनेक संज्ञाद्वारा सम्बोधित किया है। श्री कृष्ण प्रणामी धर्ममें उनको श्री कृष्ण अथवा श्री राज शब्द के द्वारा सम्बोधन करनेका तात्पर्य यह है कि उनकी एकमात्र सत्ता है, वे सभी चेतनाओंके मूलमें हैं और आनन्द स्वरूप हैं, वे स्वप्रकाश हैं, उनके ही प्रकाशसे सबकुछ प्रकाशित होता है (तस्या भासा सर्वमिदं विभाति) और वे सभीके एकमात्र राजा हैं।
पूर्णब्रह्म परमात्माको शास्त्रोंमें लीलापुरुष भी कहा है (लीलामयोऽयं पुरुषः)। उनकी लीला मुख्यरूपसे दो प्रकारकी मानी गई है, (१) नित्य लीला ( प्रेम लीला) एवं (२) ऐश्वर्य लीला । लीला अकेले नहीं होती है। शास्त्रोंमें भी कहा है, एकाकी न रमते । पूर्णब्रह्म परमात्मा स्वयंसे ही अपनी शक्तियोंको प्रकट कर लीलाका विस्तार करते हैं । वे अपने सत् अंगसे अक्षरब्रह्मको प्रकट कर ऐश्वर्य लीलाका विस्तार करते हैं और अपने आनन्द अंगसे श्री श्यामाजीको प्रकट कर नित्यलीला अथवा प्रेमलीलाका विस्तार करते हैं।
उक्त दोनों प्रकारकी लीलायें सच्चिदानन्दमयी हैं तथापि नित्यलीला अथवा प्रेम लीलामें आनन्दका अतिरेक होनेसे शास्त्रोंमें ब्रह्मको अनन्दस्वरूप भी कहा है (आनन्दो ब्रह्मेति विजानात्)। आनन्द अंग श्री श्यामाजीसे ब्रह्मात्माएँ एवं उनसे ब्रह्मधाम परमधाम प्रकट होता है। इस प्रकार पूर्णब्रह्म भी आनन्द स्वरूप हैं, श्री श्यामाजी भी आनन्द स्वरूपा हैं, उनकी ही अंगरूपा होनेसे ब्रह्मात्मायें भी आनन्द स्वरूपा हैं और लीलाभूमि ब्रह्मधाम परमधाम भी आनन्द स्वरूप अथवा आनन्दमय है । ब्रह्मधाम परमधामकी यावत् सामग्री, सम्पदा आनन्द स्वरूपमें हैं । पूर्णब्रह्म परमात्मा अपनी अंगना श्री श्यामाजी एवं ब्रह्मात्माओंके साथ दिव्य परमधाममें आनन्दमयी लीलायें करते हैं । इन लीलाओंको नित्यलीला, प्रेमलीला, आनन्द लीला कहा है। ये सभी लीलायें ब्राह्मीलीला हैं । ब्रह्म धाम परमधाममें ऐसी लीलायें नित्य निरन्तर होती रहती हैं । पूर्णब्रह्म परमात्माने नश्वर जगतमें भी प्रकट होकर श्री श्यामाजी एवं ब्रह्मात्माओंके साथ ब्राह्मीलीला की है उनको व्रज, रास और जागनी लीला कहा है। नश्वर जगत(सम्पूर्ण सामग्री सहित) क्षणभंगुर होता है किन्तु इस नश्वर जगतमें हुई ब्राह्मीलीला अर्थात् व्रज, रास और जागनी(तीनों लीलाओं)को अक्षर ब्रह्मने अपने हृदयमें अंकित कर अखण्ड किया जिससे नश्वर जगतमें सम्पन्न होनेपर भी ये तीनों लीलायें अखण्ड हैं।
पूर्णब्रह्म परमात्मा जब अपनी ऐश्वर्य लीलाका विस्तार करते हैं तब वे अपने सदंशसे अक्षरब्रह्मको प्रकट करते हैं । अक्षरब्रह्म एक होते हुए भी ऐश्वर्य लीला विस्तारके लिए चतुष्पाद विभूति बन जाते हैं । उनके सत् स्वरूप, केबल, सबलिक अव्याकृत इन चारों स्वरूपोंके भी अनेक स्वरूप प्रकट होते हैं जिनके अन्तर्गत गोलोकीनाथ, प्रणवब्रह्म आदि संलग्न हैं । अक्षरब्रह्मके मनकी वृत्ति दो प्रकारकी मानी गई है । उनमें एक विलासकी ( आनन्दमयी )वृत्ति है तो दूसरी खेलकी (क्रीडामयी) वृत्ति है । वे विलासकी वृत्तिसे पूर्णब्रह्मके दर्शन करते हैं, पूर्णब्रह्मका चिन्तन करते हैं और अनन्द मग्न होकर अक्षर धाममें लीला करते हैं जबकि खेलकी वृत्तिके द्वारा संकल्प मात्रसे असंख्य ब्रह्माण्डोंका सर्जन, स्थिति एवं विसर्जन करते रहते हैं । उनके नेत्र भ्रमण मात्रसे करोडों ब्रह्माण्डोंका उदय अस्त होता है । पूर्णब्रह्म परमात्मा स्वयं मायाको प्रकट कर उसे अक्षरब्रह्मके नियन्त्रणमें देते हैं । अक्षर ब्रह्म इसी मायाके द्वारा असंख्य ब्रह्माण्डोंका उदय अस्त करते हैं। इस प्रकार पूर्णब्रह्म परमात्माकी ऐश्वर्य लीलाका विस्तार होता है।
अपनी ऐश्वर्य लीलाके विस्तारके लिए पूर्णब्रह्म परमात्मा स्वयंके सदंशसे अपने जिस स्वरूपको प्रकट करते हैं वे अक्षरब्रह्म अथवा कार्यब्रह्म कहलाते हैं। उनके भी चतुष्पाद विभूति आदि अनेक रूप हैं । वे सभी अविनाशी स्वरूप हैं। इन सभीको पूर्णब्रह्म परमात्माकी ऐश्वर्य लीला विस्तारमें पूर्णब्रह्मका अक्षर स्वरूप कहा गया है। जब अक्षरब्रह्म मायाका उपाश्रय लेकर मायाके द्वारा असंख्य ब्रह्माण्डोंका सर्जन करते हैं तब प्रत्येक ब्रह्माण्डमें अपनी शक्तिका प्रवेश करवाते हैं। उसे भगवान नारायण कहा जाता है। नारका अर्थ होता है माया अथवा जल एवं अयनका अर्थ होता है घर । जिनका घर मायामें अर्थात् मोहरूपी जलमें होता है उनको नारायण कहते हैं । भगवान नारायण अपने संकल्प द्वारा स्वयंसे ही ब्रह्मा, विष्णु, महेश तथा विभिन्न देवी देवताओंको प्रकट करते हैं। भगवान नारायण सहित त्रिदेव-ब्रह्मा, विष्णु, महेश उनके अवतार तथा सभी देवी देवतायें परिवर्तनशील हैं । उनको पूर्णब्रह्म परमात्माका क्षर स्वरूप कहा जाता है । पूर्णब्रह्मका अक्षर स्वरूप अर्थात् अक्षर ब्रह्म मायाका उपाश्रय लेकर ऐश्वर्य लीलाका विस्तार करते हैं तब उनके द्वारा प्रकट हुए सभी परिवर्तनशील स्वरूप क्षरब्रह्मके अन्तर्गत आते हैं। इस प्रकार पूर्णब्रह्म परमात्मा अपनी ऐश्वर्य लीलाके विस्तारके लिए स्वयंसे अक्षर रूपमें एवं अक्षरके द्वारा क्षर स्वरूपमें प्रकट होते हैं।
इन तीनों प्रकारके स्वरूपोंको पूर्णब्रह्म परमात्माका क्षर, अक्षर एवं अक्षरातीत स्वरूप कहा गया है।
पूर्णब्रह्म परमात्मा अपने नित्य लीला, प्रेमलीला तथा आनन्दमयी लीलाका विस्तार करते हैं। उनके उस स्वरूपको अक्षरातीत स्वरूप कहते हैं। वह परमात्माका मूल स्वरूप है । श्री श्यामाजी, ब्रह्मात्मायें तथा परमधाम उनका आनन्द अंग है। वे स्वयं अपने आनन्द अंगके साथ आनन्दमयी लीलायें करते हैं । मात्र ऐश्वर्य लीलाके विस्तारके लिए वे अक्षर स्वरूप एवं क्षर स्वरूप धारण करते हैं । क्षर, अक्षर एवं अक्षरातीत स्वरूप पूर्णब्रह्मका ही है तथापि अक्षरातीत स्वरूपको ही पूर्णब्रह्म कहा जाता है और उनके अक्षर एवं क्षर स्वरूप को विभिन्न नामोंसे पुकारा जाता है। इन अक्षर एवं क्षर, स्वरूपमें भी जो स्वरूप पूर्णब्रह्मकी ओरसे कार्य करते हैं उनको भी पूर्णब्रह्मके ही नामसे पुकारा जाता है। उदाहरण स्वरूप अक्षरब्रह्मका ही एक विभाग है गोलोक धाम । उनके अधिपति गोलोकीनाथको भी श्री कृष्ण नामसे जाना जाता है । गोलोकीनाथ क्षरब्रह्माण्डके विभूतियोंके सहयोगके लिए हैं । क्षर ब्रह्माण्डके अन्तर्गत चौदहलोकमें ब्रह्मा, विष्णु, महेशको सृष्टि, स्थिति, लयका कार्य सौंपा होता है अर्थात् इन चौदह लोकका सम्पूर्ण दायित्व इनके ऊपर होता है। इन चौदह लोकके अन्तर्गतकी व्यवस्था जब इनके द्वारा पूर्णरूपसे नियन्त्रित नहीं हो सकती तब वे गोलोकी नाथसे सहायता प्राप्त करते हैं।
गोलोकीनाथ पूर्णब्रह्मकी ओरसे इनको सहयोग करते हैं इसलिए अक्षरब्रह्मके अंग होनेपर भी उनको पूर्णब्रह्म परमात्माका ही नाम श्री कृष्ण दिया गया है । इस प्रकार अक्षर ब्रह्म भी श्री कृष्ण कहलाते हैं। इसी प्रकार क्षर जगतमें ब्रह्माण्डके अन्तर्गत स्थित चौदह लोकोंकी स्थिति भगवान विष्णु बनाय रखते हैं। इसके लिए उनको वारम्वार मृत्युलोकमें प्रकट होना पड़ता है । एक सर्ग(एक बारकी सृष्टि) में वे अपनी अंश और कलाके रूपमें चौबीस वार भूमण्डलमें प्रकट होते हैं। उनके ऐसे प्राकट्यको चौबीस अवतार कहा जाता है। इन अवतारोंमें जब वे पूर्णरूपसे प्रकट होते हैं तब उनके उस अवतारको भी पूर्णब्रह्म श्री कृष्णका ही नाम प्राप्त हो
ता है । इसलिए श्री कृष्ण अवतार भगवान विष्णुका पूर्ण अवतार माना जाता है । श्रीमद्भागवतमें अन्य अवतारको अंश एवं कला अवतार कहकर श्री कृष्ण अवतारको पूर्ण अवतार कहा गया है (एते चांशकलापुंसः कृष्णस्तु भगवान् स्वयम्)। भगवान विष्णु क्षर स्वरूपके अन्तर्गत आते हैं । इसलिए भगवान विष्णुका यह अवतार पूर्णब्रह्म परमात्मा श्री कृष्णजीका क्षर स्वरूप है ।
यद्यपि क्षर जगतकी सभी विभूतियाँ पूर्णब्रह्मके क्षर स्वरूपमें आती हैं किन्तु श्री कृष्ण अवतारके विषयमें अल्पश्रुत भ्रमित होते हैं और उनको भी पूर्णब्रह्म कहने लगते हैं। तारतम ज्ञानके द्वारा इस भ्रान्तिको मिटाकर श्री कृष्णजीके क्षर, अक्षर एवं अक्षरातीत स्वरूपको स्पष्ट किया गया है। जो लोग श्री कृष्णजीको भगवान विष्णुका अवतार समझते हैं वे श्री कृष्णजीके क्षर स्वरूपको समझ रहे हैं । जो लोग श्री कृष्णजीको गोलोकीनाथ समझते हैं वे श्री कृष्णजीके अक्षर स्वरूपको समझ रहे हैं । जो लोग श्री कृष्णजीको पूर्णब्रह्म परमात्मा समझते हैं वे उनके अक्षरातीत स्वरूपको समझते हैं। तारतम ज्ञानके द्वारा श्री कृष्णजीके क्षर, अक्षर एवं अक्षरातीत तीनों स्वरूपोंको समझा जा सकता है।
श्री कृष्ण त्रिधा लीला
ऊपर वर्णित क्षर, अक्षर एवं अक्षरातीत स्वरूप पूर्णब्रह्म परमात्मा श्री कृष्णजीका ही स्वरूप है। श्री कृष्णजीके उक्त तीनों स्वरूपोंकी लीला जब मायामें एक साथ होती है उसको श्री कृष्ण त्रिधालीला कहते हैं। यह रहस्य मार्मिक भी है और जटिल भी । इस जटिल रहस्यको यहाँपर सरलतासे समझाया जा रहा है।
यह बात ऊपर स्पष्ट हो चुकी है कि पूर्णब्रह्म परमात्मा अपने आनन्द अंग श्री श्यामाजी एवं ब्रह्मात्माओंके साथ परमधाममें नित्य लीला करते हैं । जब वे अपनी अंगनाओंको अपने ऐश्वर्यका दर्शन करवाना चाहते हैं तब वे उनके साथ नश्वर जगतमें प्रकट होकर लीलायें करते हैं । इस नश्वर जगतमें पूर्णब्रह्म परमात्मा श्री कृष्णजीका प्रथम प्राकट्य व्रजमण्डलमें हुआ है। उनके व्रजमंडलके प्राकट्यकी तिथिको श्रीकृष्ण जन्माष्टमी कहते हैं।
व्रजमण्डलमें प्रकट होकर उन्होंने ग्यारह वर्ष एवं बावन दिन पर्यन्त अनेक दिव्य लीलायें की। तदनन्तर रासकी लीला की । (व्रज और रास दोनों लीलाओंके प्रयोजन भिन्न भिन्न हैं, उनका उल्लेख पृथक् रूपसे किया जाएगा। यहाँ पर मात्र त्रिधा लीलाको स्पष्ट किया जा रहा है।) व्रज और रास ये दोनों लीलायें पूर्णब्रह्मके द्वारा सम्पन्न हुई हैं। श्री कृष्ण लीलामें व्रज और रासके पश्चात् मथुरा एवं द्वारकाकी लीला हुई है। इन लीलाओंको क्रमशः श्री कृष्णजीके अक्षर एवं क्षर स्वरूप द्वारा की गई लीला कहा गया है।
रास लीलाके पश्चात् सात दिनकी गोकुल लीला एवं चार दिनकी मथुरा लीला गोलोकी नाथ श्री कृष्णजीकी लीला है। इसमें मुख्यरूपसे मथुराकी लीला है जिसमें कंसका उद्धार, वसुदेव देवकीको बन्धनमुक्त करना एवं उग्रसेनको राज तिलक करना आदि लीलायें आती हैं। जब कंसका अत्याचार बढने लगा तब उससे मुक्ति पानेके लिए पृथ्वीने गोरूप धारण कर भगवान विष्णुसे प्रार्थना की । कंसको वरदान था कि वह भगवान विष्णु या उनकी किसी भी शक्तिसे नहीं मरेगा । तब भगवान विष्णु, ब्रह्माजी एवं भगवान शंकरने विचार विमर्श किया और सूक्ष्मरूप धारण कर वे ब्रह्माण्डसे परे गोलोक धाम जाकर गोलोकीनाथ श्री कृष्णजीसे सहायताके लिए प्रार्थना करने लगे। उनकी प्रार्थना सुनकर श्री कृष्णजीने कहा, मैं आकर कंसका अत्याचार दूर करूँगा । किन्तु ध्यान रखो, पूर्णब्रह्म परमात्मा अपनी अंगनाओंको नश्वर जगतका खेल दिखानेके लिए प्रकट होनेवाले हैं। मैं भी उनके साथ आऊँगा। तुमलोग व्रजमंडलमें जा कर व्यवस्था करो।
इस प्रकार कंसके उद्धारके लिए गोलोकीनाथ भी भूतल पर आए थे । पूर्णब्रह्म परमात्माकी शक्तिके लौटने पर गोलोकीनाथ श्री कृष्णजी कंसका उद्धार आदि कार्य करते हैं । यह श्री कृष्णजीकी अक्षर स्वरूपकी लीला है । मथुराकी उक्त लीलाओंके पश्चात् गोलोकीनाथकी शक्ति भी स्वधाम लौट जाती है तब मथुराकी शेष लीलायें एवं द्वारकाकी लीलायें भगवान विष्णुके द्वारा सम्पन्न होती हैं । उस समय भगवान विष्णु भूमण्डल पर पूर्णरूपसे आए थे । इसी स्वरूपको ‘कृष्णस्तु भगवान स्वयम्’ कहा है।
इस प्रकार श्री कृष्णजीके नामसे इस जगतमें तीन प्रकारकी लीलायें सम्पन्न हुई । उनमें व्रज एवं रासकी लीलाएं पूर्णब्रह्म परमात्माकी हैं । तदनन्तर कंस उद्धार आदि लीलायें गोलोकीनाथकी हैं एवं तत्पश्चात््की मथुरा एवं द्वारकाकी लीलायें भगवान विष्णुकी लीलायें हैं । श्री कृष्णजीके नामसे इस जगतमें सम्पन्न हुई अक्षरातीत, अक्षर एवं क्षर स्वरूपकी लीलाओंको श्री कृष्ण त्रिधालीला कहा जाता है।
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